Friday, January 30, 2009

सूरज की तलास में


फिर निकला हूँ
अपनें सूरज की तलाश में।
उसे कंदराओं में खोजता हूँ
धरती और आकाश में।

उस की रोशनी तो
सदा से मेरे आस-पास
नजर आती है।
यही रोशनी मुझे उस के होनें का
आभास करा जाती है।
एक दिन इसी रोशनी की
डोर पकड़ कर
पहुँच जाऊँगा
उसके पास में।
इसी लिए जी रहा हूँ
आस में।

कई बार सोचता हूँ
मेरे सूरज
तुम मुझे आवाज क्युँ नही देते?
मेरी सागर में हिचकोले खाती नौका को
अपनी ओर क्युँ नही खेते?
हवा का रूख अपनी ओर
मोड़ क्युँ नही लेते?
कुछ बोलते क्युँ नही
मेरे प्रश्नों के जवाब में।
फिर निकला हूँ
अपनें सूरज की तलाश में।

9 comments:

  1. aapki talash jaroor poori hogi kavita ke sath tasveer bahut pasand aayee bdhaai

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  2. बहुत ही सुन्दर और सारगर्भित।

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  3. bahot hi badhiya bhav diya hai aapne is kavita me ... khub badhiya likha hai dhero abdhai aapko sahab...


    arsh

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  4. behad khubsurat kha kar dusra santza lajawaab

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  5. बहुत सुन्दर और प्रभावशाली रचना

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  6. सूरज की तलाश ! क्या कहने हैं,सूरज की किरणें डोर बन जाएँगी.......बहुत ही अच्छी रचना

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  7. bahut hi sundar rachna

    aapko badhai

    aapka

    vijay

    pls see my new post

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